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भर्गो॑ ह॒ नामो॒त यस्य॑ दे॒वाः स्व१॒॑र्ण ये त्रि॑षध॒स्थे नि॑षे॒दुः । अ॒ग्निर्ह॒ नामो॒त जा॒तवे॑दाः श्रु॒धी नो॑ होतॠ॒तस्य॒ होता॒ध्रुक् ॥

English Transliteration

bhargo ha nāmota yasya devāḥ svar ṇa ye triṣadhasthe niṣeduḥ | agnir ha nāmota jātavedāḥ śrudhī no hotar ṛtasya hotādhruk ||

Pad Path

भर्गः॑ । ह॒ । नाम । उ॒त । यस्य॑ । दे॒वाः । स्वः॑ । न । ये । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थे । नि॒ऽसे॒दुः । अ॒ग्निः । ह॒ । नाम॑ । उ॒त । जा॒तऽवे॑दाः । श्रु॒धि । नः॒ । हो॒तः॒ । ऋ॒तस्य॑ । होता॑ । अ॒ध्रुक् ॥ १०.६१.१४

Rigveda » Mandal:10» Sukta:61» Mantra:14 | Ashtak:8» Adhyay:1» Varga:28» Mantra:4 | Mandal:10» Anuvak:5» Mantra:14


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (भर्गः-ह नाम) दुःखमूल पापों का भर्जन-भस्मी जिसके द्वारा हो, ऐसे ‘ओ३म्’ नाम (उत) और (यस्य देवाः) जिसके आश्रय में अथवा जिसको आश्रित करके मुमुक्षुजन (त्रिषधस्थे स्वः-न निषेदुः) अकार-अ, उकार-उ, मकार-म्, इन तीनों के सहयोग से बना हुआ, ओ३म्’ अथवा कर्म, उपासना, ज्ञान में स्थान जिसका है, ऐसे आनन्द को अनुभव करते हुए से स्थिर होते हैं (अग्निः-ह नाम) वह ज्ञानप्रकाशक प्रसिद्ध (उत) तथा (जातवेदाः) जो उत्पन्न हुओं को जानता है, ऐसा सर्वज्ञ (ऋतस्य होता) अध्यात्मयज्ञ का ग्रहीता (अध्रुक्) द्रोह न करनेवाला-स्नेहकर्ता, वह हे आह्वानयोग्य देव ! (नः श्रुधी) हमें स्वीकार कर ॥१४॥
Connotation: - परमात्मा का मुख्य या स्वाभाविक नाम ‘ओ३म्’ है। इसको जानने मानने और उपासना करने से दुःखों के मूल अर्थात् पाप भस्म हो जाते हैं तथा ज्ञान कर्म उपासना द्वारा मुमुक्षु रोग दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। वह परमात्मा उपासकों के द्वारा किये हुए स्तुति प्रार्थना उपासना का स्वीकारकर्ता है ॥१४॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (भर्गः-ह नाम) “भृजन्ति [पापानि दुःखमूलानि येन” [यजु० ३।३५ दयानन्दः] तथाभूतं नाम-ओ३म् (उत) अपि (यस्य देवाः) यस्याश्रये यमाश्रित्य मुमुक्षवः (त्रिषधस्थे स्वः-न निषेदुः) अकारोकारमकारात्मनामकं सह मात्रास्थानेषु यद्वा “कर्मोपासना ज्ञानेषु स्थानं यस्य” [ऋ० ४।५०।१ दयानन्दः] “सधस्थे समानस्थाने” [ऋ० ६।५२।१५ दयानन्दः] सुखमिवानुभवन्तो ये तिष्ठन्ति (अग्निः-ह नाम) सोऽग्निर्ज्ञानप्रकाशकोऽपि नाम प्रसिद्धः (उत) अपि (जातवेदाः) जातानि वेद यः सर्वज्ञः (ऋतस्य होता) अध्यात्मयज्ञस्य होता ग्रहीता (अध्रुक्) अद्रोग्धा-स्नेहकर्ता स हे ह्वातव्य देव ! (नः श्रुधी) अस्मान् शृणु स्वीकुरु ॥१४॥